पुत्ता मत्थि धनम्मत्थि [पुत्तमत्थि धनमत्थि (क॰)], इति बालो विहञ्ञति।
अत्ता हि [अत्तापि (?)] अत्तनो नत्थि, कुतो पुत्ता कुतो धनं॥
धम्मपद ६२
“ मेरा पुत्र !”, “मेरा धन ! " – इस मिथ्या चितंन मे ही मूढ व्यक्ति व्याकुल बना रहता है । अरे, जब यह तन मन का अपनापा भी अपना नही है तो कहां “मेरा पुत्र !” “ और कहाँ “मेरा धन !”
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