बहुं वे सरणं यन्ति, पब्बतानि वनानि च।
आरामरुक्खचेत्यानि, मनुस्सा भयतज्जिता॥
१८९. नेतं खो सरणं खेमं, नेतं सरणमुत्तमं।
नेतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्चति॥
भयग्रस्त होकर वनों पहाडॊं मे छिपना , धार्मिक स्थलों की शरण लेना व्यर्थ है क्योकि इनमे से कोई भी मन को भय मुक्त नही कर सकता …
धम्मपद १८८- १८९
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