यो बालो मञ्ञति बाल्यं, पण्डितो वापि तेन सो।
बालो च पण्डितमानी, स वे ‘‘बालो’’ति वुच्चति॥
धम्मपद ६३.
जो मूढ होकर अपनी मूढता को स्वीकारता है वह सच्चे अर्थ मे ज्ञानी और पंडित है और जो मूढ होकर अपने आप को पंडित मानता है , वह मूढ ही कहलाया जाता है ।
यो बालो मञ्ञति बाल्यं, पण्डितो वापि तेन सो।
बालो च पण्डितमानी, स वे ‘‘बालो’’ति वुच्चति॥
धम्मपद ६३.
जो मूढ होकर अपनी मूढता को स्वीकारता है वह सच्चे अर्थ मे ज्ञानी और पंडित है और जो मूढ होकर अपने आप को पंडित मानता है , वह मूढ ही कहलाया जाता है ।
पुत्ता मत्थि धनम्मत्थि [पुत्तमत्थि धनमत्थि (क॰)], इति बालो विहञ्ञति।
अत्ता हि [अत्तापि (?)] अत्तनो नत्थि, कुतो पुत्ता कुतो धनं॥
धम्मपद ६२
“ मेरा पुत्र !”, “मेरा धन ! " – इस मिथ्या चितंन मे ही मूढ व्यक्ति व्याकुल बना रहता है । अरे, जब यह तन मन का अपनापा भी अपना नही है तो कहां “मेरा पुत्र !” “ और कहाँ “मेरा धन !”
चरञ्चे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो।
एकचरियं [एकचरियं (क॰)] दळ्हं कयिरा, नत्थि बाले सहायता॥
यदि शील , समाधि या प्रज्ञा मे विचरण करते हुये अपने से श्रेष्ठ या अपना जैसा सहचर न मिले , तो दृढता के साथ अकेला विचरण करे । मूर्ख च्यक्ति से सहायता नही मिल सकती ।
धम्मपद ६१
अनूपवादो अनूपघातो [अनुपवादो अनुपघातो (स्या॰ क॰)], पातिमोक्खे च संवरो।
मत्तञ्ञुता च भत्तस्मिं, पन्तञ्च सयनासनं।
अधिचित्ते च आयोगो, एतं बुद्धान सासनं॥
धम्मसंहिता पर आचरण करते हुये किसी के दोषों को न देखॊ ..दूसरों को तकलीफ़ न दो .. काने और सोने मे संयमित रहो और द्यान लगाने की पूरी चेष्टा करो ।
धमपद १८५
खन्ती परमं तपो तितिक्खा, निब्बानं [निब्बाणं (क॰ सी॰ पी॰)] परमं वदन्ति बुद्धा।
न हि पब्बजितो परूपघाती, न [अयं नकारो सी॰ स्या॰ पी॰ पात्थकेसु न दिस्सति] समणो होति परं विहेठयन्तो॥
धैर्य रखकर सहनशक्ति के साथ जीवन के मूल उद्देशय यानि निर्वाण प्राप्ति की कोशिश करते रहो …किसी के कष्ट का करण न बनो और न हीऒ किसी को कष्ट दो ।
धम्मपद १८४
ये झानपसुता धीरा, नेक्खम्मूपसमे रता।
देवापि तेसं पिहयन्ति, सम्बुद्धानं सतीमतं॥
ईशवर भी जागृतों से प्रतिस्पर्था कर उन पर कृपा करते हैं ..जगृत होकर ध्यानवस्था मे ही पूर्ण स्वतंत्रता और शांति की प्राप्ति संभव है ।
धम्मपद १८१
यस्स जितं नावजीयति, जितं यस्स [जितमस्स (सी॰ स्या॰ पी॰), जितं मस्स (क॰)] नो याति कोचि लोके।
तं बुद्धमनन्तगोचरं, अपदं केन पदेन नेस्सथ॥
वह विजेता है , उस पर कभी विजय प्राप्त नही की जा सकती ..उसके प्रभाव क्षेत्र मे कोई दखल नही दे सकता । उसके पास पहुँचने का मर्ग है …बुद्ध ..जो जागृत स्वरुप है ।
धम्मपद १७९
सदा जागरमानानं, अहोरत्तानुसिक्खिनं।
निब्बानं अधिमुत्तानं, अत्थं गच्छन्ति आसवा॥
निधीनंव पवत्तारं, यं पस्से वज्जदस्सिनं।
निग्गय्हवादिं मेधाविं, तादिसं पण्डितं भजे।
तादिसं भजमानस्स, सेय्यो होति न पापियो॥
जो व्यक्ति अपना दोष दिखाने वाले को संपदा दिखाने वाले की तरह समझे , जो संयम की बात करने वाले मेघावी पुरुषॊं की संगति करे , उस व्यक्ति का हमेशा मंगल होता है , अमंगल नही ।
धम्मपद ७६
न भजे पापके मित्ते, न भजे पुरिसाधमे।
भजेथ मित्ते कल्याणे, भजेथ पुरिसुत्तमे॥
न पापी मित्रों और न अधम्म मित्रों की संगत करे । संगति करे कल्याण मित्रों की , उत्तम पुरुषॊं की ।
धम्मपद ७८
अक्कोधेन जिने कोधं, असाधुं साधुना जिने।
जिने कदरियं दानेन, सच्चेनालिकवादिनं॥
अक्रोध से क्रोध को जीते , अभद्र को भद्र बन कर जीते , कृपण को दान से जीते और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीते ।
धम्मपद २२३
Overcome the angry by kindness;
Overcome the wicked by goodness;
Overcome the miser by generosity;
Overcome the liar by truth.
Dhammapada 223
न तं माता पिता कयिरा, अञ्ञे वापि च ञातका।
सम्मापणिहितं चित्तं, सेय्यसो नं ततो करे॥
जितनी भलाई न माता पिता कर सकते हैं , न दूसरे भाई बधुं उससे कही अधिक भलाई और सन्मार्ग पर लगा हुआ करता है ।
धम्मपद ४३
Neither mother, nor father, nor
any other family or friend can do
greater good for oneself, than a
well trained & well directed mind!
Dhammapada 43
सब्बत्थ वे सप्पुरिसा चजन्ति, न कामकामा लपयन्ति सन्तो।
सुखेन फुट्ठा अथ वा दुखेन, न उच्चावचं [नोच्चावचं (सी॰ अट्ठ॰)] पण्डिता दस्सयन्ति॥
सत्पुरुष सर्वत्र राग छोड देते हैं । संतजन कामभोगों के लिये बात नही चलाते । चाहेच सुख मिले या दुख , पंडित जन अपने मन का उतार चढाव प्रदर्शित नही करते ।
धम्मपद ८३
The good relinquish attachment to everything.
The wise do not prattle with yearning for pleasures.
The clever show neither elation, nor depression,
when touched either by happiness, or by sorrow...
Dhammapada 83
न हि पापं कतं कम्मं, सज्जु खीरंव मुच्चति।
डहन्तं बालमन्वेति, भस्मच्छन्नोव [भस्माछन्नोव (सी॰ पी॰ क॰)] पावको॥
जैसे ताजा दूध शीघ्र नही जमता , उसी तरह किया गया पाप कर्म शीघ्र अपना फ़ल नही लाता । राख से ढकी आग की तरह जलता हुआ वह मूर्ख का पीछा करता है ।
धम्मपद गाथा बालवग्गो ५:७१
कुम्भूपमं कायमिमं विदित्वा, नगरूपमं चित्तमिदं ठपेत्वा।
योधेथ मारं पञ्ञावुधेन, जितञ्च रक्खे अनिवेसनो सिया॥
इस शरीर को घडॆ के समान जान और इस चित्त को गढ के समान रक्षित और दृढ बना , प्रज्ञा रुपी शस्त्र के साथ मार से युद्ध करे । उसे जीत लेने पर भी चित्त की रक्षा करे और अनास्कत बना रहे ।
धम्मपद गाथा ३:४० चित्तवग्गो
PNदीघा जागरतो रत्ति, सन्तस्स योजनं।
दीघो बालानं संसारो, सद्धंम्मं अविजानतं ॥
जागने वाले की रात लम्बी हो जाती है , थके हुये का योजन लम्बा हो जाता है । सद्धर्म को न जानने वाले मूर्ख व्यक्तियों के लिये संसार चक्र लम्बा हो जाता है ।
धम्मपद गाथा ५:६० बालवग्गो ।
न अन्तलिक्खे न समुद्दमज्झे, न पब्बतानं विवरं पविस्स [पविसं (स्या॰)]।
न विज्जती [न विज्जति (क॰ सी॰ पी॰ क॰)] सो जगतिप्पदेसो, यत्थट्ठितो [यत्रट्ठितो (स्या॰)] मुच्चेय्य पापकम्मा॥
न आकाश मे , न समुद्रं की गहराइयों मे , न पर्वतों की दराओं में प्रवेश करके , इस जगत मे कोई स्थान ऐसा नही है जहाँ कोई अपने पापकर्मों को भोगने से बच सके ।
धम्मपद गाथा ९/१२७ पापवग्गो
न अन्तलिक्खे न समुद्दमज्झे, न पब्बतानं विवरं पविस्स।
न विज्जती सो जगतिप्पदेसो, यत्थट्ठितं [यत्रट्ठितं (स्या॰)] नप्पसहेय्य मच्चु
न आकाश में , न समुद्र्म की गहराइयों मे , न पर्वतों के दराओं मे प्रवेश करके , इस जगत मे कोई ऐसा स्थान नही है जहाँ ठहरे हुये को मृत्यु दबोच न ले ।
धमम्पद गाथा ९/१२८ पापवग्गो
मावमञ्ञेथ [माप्पमञ्ञेथ (सी॰ स्या॰ पी॰)] पापस्स, न मन्तं [न मं तं (सी॰ पी॰), न मत्तं (स्या॰)] आगमिस्सति।
उदबिन्दुनिपातेन, उदकुम्भोपि पूरति।
बालो पूरति [पूरति बालो (सी॰ क॰), आपूरति बालो (स्या॰)] पापस्स, थोकं थोकम्पि [थोक थोकम्पि (सी॰ पी॰)] आचिनं॥
’ वह मेरे पास नही आयेगा ’ ऐसा सोच कर पाप की अवेहलना न करे । बूंद-२ करने से घडा भर जाता है । ऐसे ही थोडा-२ संचय करने से मूढ व्यक्ति भी पाप से भर जाता है ।
धम्मपद गाथा ९ पापवग्गो
Think not lightly of evil, saying, "It
will not come to me." Drop by drop is the water
pot filled; likewise, the fool, gathering it little by
little, fills oneself with evil.
The Dhammapada Chapter Nine -- Evil
सहस्समपि चे वाचा, अनत्थपदसंहिता।
एकं अत्थपदं सेय्यो, यं सुत्वा उपसम्मति॥
नि्रर्थक पदों से युक्त हजार वचनों की अपेक्षा एक अकेला सार्थक पद श्रेयस्कर होता है जिसे सुनकर कोई च्यक्ति शांत हो जाता है ।
धम्मपद : सहस्सवग्गो
Better than a thousand useless words is one
useful word, hearing which one attains peace.
Dhammaapada :Chapter Eight -- The Thousands 100
पापञ्चे पुरिसो कयिरा, न नं [न तं (सी॰ पी॰)] कयिरा पुनप्पुनं।
न तम्हि छन्दं कयिराथ, दुक्खो पापस्स उच्चयो॥
यदि कोई पुरुष पापकर्म कर डाले तो उसे बार-२ तो न करे | वह उसमे रुचि न ले क्योंकि पापकर्म का संचय दुख का कारण बनता है ।
धमपद गाथा ९:११७ पापवग्गो
Should a person commit evil, let one
not do it again and again. Let one not find pleasure
therein, for painful is the accumulation of evil.
मनुजस्स पमत्तचारिनो, तण्हा वड्ढति मालुवा विय।
सो प्लवती [प्लवति (सी॰ पी॰), पलवेती (क॰), उप्लवति (?)] हुरा हुरं, फलमिच्छंव वनस्मि वानरो॥
प्रमत्त होकर आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालुवा लता की भाँति बढती है , वन मे फ़ल की इच्छा से एक शाखा छोडकर दूसरी शाखा पकडते बंदर की तरह वह एक भव से दूसरे भव मे लट्कता रहता है ।
धम्मपद गाथा २४. तण्हावग्गो
The craving of one given to heedless living grows like a creeper. Like the monkey seeking fruits in the forest, one leaps from life to life (tasting the fruit of one's kamma).
The Dhammapada Chapter Twenty-Four -- Craving
खन्ती परमं तपो तितिक्खा, निब्बानं [निब्बाणं (क॰ सी॰ पी॰)] परमं वदन्ति बुद्धा।
न हि पब्बजितो परूपघाती, न [अयं नकारो सी॰ स्या॰ पी॰ पात्थकेसु न दिस्सति] समणो होति परं विहेठयन्तो॥
धैर्य रखकर सहनशक्ति के साथ जीवन के मूल उद्देशय यानि निर्वाण प्राप्ति की कोशिश करते रहो …किसी के कष्ट का करण न बनो और न किसी को कष्ट दो ।
धम्मपद गाथा १४:१८४ बुद्धवग्गो
मावोच फरुसं कञ्चि, वुत्ता पटिवदेय्यु तं [पटिवदेय्युं तं (क॰)]।
दुक्खा हि सारम्भकथा, पटिदण्डा फुसेय्यु तं [फुसेय्युं तं (क॰)]॥
तुम किसी को कठोर वचन न बोलो , बोलने पर दूसरे भी तुम्हें वैसा ही बोलेगें । क्रोध या विवाद वाली वाणी दु:ख है । उसके बदले मे तुमें दु:ख मिलेगा ।
धम्मपद गाथा १० दणडवग्गो
Speak not harshly to anyone; for those
thus spoken to might retort. Indeed, angry
speech hurts, and retaliation may overtake you.