चरन्ति बाला दुम्मेधा, अमित्तेनेव अत्तना।
करोन्ता पापकं कम्मं, यं होति कटुकप्फलं॥
बाल बुद्धि वाले मूर्ख जन अपने ही शत्रु बन कर वैसे ही आचरण करते हैं और ऐसे ही पापकर्म करते है जिसका फ़ल उनके लिये कडुवा होता है ।
धम्मपद ६६
चरन्ति बाला दुम्मेधा, अमित्तेनेव अत्तना।
करोन्ता पापकं कम्मं, यं होति कटुकप्फलं॥
बाल बुद्धि वाले मूर्ख जन अपने ही शत्रु बन कर वैसे ही आचरण करते हैं और ऐसे ही पापकर्म करते है जिसका फ़ल उनके लिये कडुवा होता है ।
धम्मपद ६६
यावजीवम्पि चे बालो, पण्डितं पयिरुपासति।
न सो धम्मं विजानाति, दब्बी सूपरसं यथा॥
चाहे मूढ व्यक्ति पंडित की जीवन भर सेवा मे लगा रहे , वह धर्म को वैसे ही जान नही पाता जैसे कलुछी सूप को ।
धम्मपद ६४
यो बालो मञ्ञति बाल्यं, पण्डितो वापि तेन सो।
बालो च पण्डितमानी, स वे ‘‘बालो’’ति वुच्चति॥
धम्मपद ६३.
जो मूढ होकर अपनी मूढता को स्वीकारता है वह सच्चे अर्थ मे ज्ञानी और पंडित है और जो मूढ होकर अपने आप को पंडित मानता है , वह मूढ ही कहलाया जाता है ।
पुत्ता मत्थि धनम्मत्थि [पुत्तमत्थि धनमत्थि (क॰)], इति बालो विहञ्ञति।
अत्ता हि [अत्तापि (?)] अत्तनो नत्थि, कुतो पुत्ता कुतो धनं॥
धम्मपद ६२
“ मेरा पुत्र !”, “मेरा धन ! " – इस मिथ्या चितंन मे ही मूढ व्यक्ति व्याकुल बना रहता है । अरे, जब यह तन मन का अपनापा भी अपना नही है तो कहां “मेरा पुत्र !” “ और कहाँ “मेरा धन !”
चरञ्चे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो।
एकचरियं [एकचरियं (क॰)] दळ्हं कयिरा, नत्थि बाले सहायता॥
यदि शील , समाधि या प्रज्ञा मे विचरण करते हुये अपने से श्रेष्ठ या अपना जैसा सहचर न मिले , तो दृढता के साथ अकेला विचरण करे । मूर्ख च्यक्ति से सहायता नही मिल सकती ।
धम्मपद ६१