मनुजस्स पमत्तचारिनो, तण्हा वड्ढति मालुवा विय।
सो प्लवती [प्लवति (सी॰ पी॰), पलवेती (क॰), उप्लवति (?)] हुरा हुरं, फलमिच्छंव वनस्मि वानरो॥
प्रमत्त होकर आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालुवा लता की भाँति बढती है , वन मे फ़ल की इच्छा से एक शाखा छोडकर दूसरी शाखा पकडते बंदर की तरह वह एक भव से दूसरे भव मे लट्कता रहता है ।
धम्मपद गाथा २४. तण्हावग्गो
The craving of one given to heedless living grows like a creeper. Like the monkey seeking fruits in the forest, one leaps from life to life (tasting the fruit of one's kamma).
The Dhammapada Chapter Twenty-Four -- Craving