बुद्ध कहते हैं कि हमारे द्वारा किये गए पाप कर्मों का प्रतिफल हमें तुरंत मिले यह हमेशा संभव नहीं होता है।कई बार पाप कर्मों का दंड हमें इतने अधिक समय बाद मिलता है कि हमें समझ ही नहीं आता कि यह अप्रिय संयोग हमारे साथ ही क्यों हुआ।
हमारे साथ प्रिय या अप्रिय घटनाएं अनायास ही नहीं घटतीं हमारे कर्मों का फल ही होती हैं।
बुद्ध के अनुसार वास्तव में पाप कर्म जब तक फलित नहीं होते तब तक वो उसी प्रकार हमारा पीछा करते रहते हैं जैसे राख के ढेर में आग सुलगते हुए अपना ताप बनाये रखती है।
Monday, March 7, 2016
पाप कर्म शीघ्र फल नहीं देते।
Tuesday, February 23, 2016
Thursday, February 11, 2016
धम्मपद गाथा 146
को नु हासो [किन्नु हासो (क॰)] किमानन्दो, निच्चं पज्जलिते सति।
अन्धकारेन ओनद्धा, पदीपं न गवेसथ॥
जलै जहाँ जब नित्य तौ, कहँ आनन्द हुलास ?
तम में तुम खोजत न किमि , दीप जु देत प्रकाश ॥
जहाँ प्रतिक्षण सब कुछ जल रहा हो , वहाँ कैसी हँसी ? कैसा आनन्द ? ऐ अविधारूपी अंधकार से घिरे हुए भोले लोगों , तुम ज्ञान रूपी प्रकाश द्धीप की खोज क्यों नही करते ?
What is laughter, what is joy, when the world is ever burning? Shrouded by darkness, would you not seek the light?
Wednesday, February 10, 2016
धम्मपद गाथा 121
मावमञ्ञेथ [माप्पमञ्ञेथ (सी॰ स्या॰ पी॰)] पापस्स, न मन्तं [न मं तं (सी॰ पी॰), न मत्तं (स्या॰)] आगमिस्सति।
उदबिन्दुनिपातेन, उदकुम्भोपि पूरति।
बालो पूरति [पूरति बालो (सी॰ क॰), आपूरति बालो (स्या॰)] पापस्स, थोकं थोकम्पि [थोक थोकम्पि (सी॰ पी॰)] आचिनं॥
‘ पाप न आये मम निकट ’ अपने मन यूं धार ।
पाप कर्म कूँ जानि कें , करै नही सत्कार ॥
टपकति पानी बूँद ज्यों , घडा भरे केहि काल ।
नैक-नैक त्यों पाप अपि , संचित करले बाल ॥
धम्मपद गाथा 121